एकलौता पुत्र – यीशु ख्रीष्ट
परमेश्वर का (एकलौता) पुत्र -
सामान्यतः जब हम
किसी परिवार मे उनके पुत्र की बात करते हैं, हमारा यह अर्थ होता है कि वह पुत्र शरीर के भाव मे जना
गया है जोकि एक स्वभावविक शारीरिक क्रिया है। लेकिन इसके साथ हम यह भी समझते हैं
कि पुत्र होने के कारण वह संतान अपने पिता से कम है; वह
पिता के समान नहीं है और पिता के तुल्य भी नहीं है।
चौथी शताब्दी के समय इसी विषय को लेकर एक विवाद उठा था जब कुछ लोगों ने कहा कि पुत्र (यीशु ख्रीष्ट) पिता के समान नहीं है और पिता के तुल्य भी नहीं है, क्योंकि वह पिता से उत्पन्न हुआ है। यह त्रिएकता की शिक्षा के विरुद्ध एक विधर्म था। इस विधर्म का खंडन करने हेतु कलीसिया के अगुवों ने एक शब्दावली का प्रयोग किया था, जो Eternal Generation of the Son कहलाता है और इसे हम “पुत्र का शाश्वतीय उद्गम” के रूप मे समझ सकते हैं। इसके द्वारा वह पुत्र और पिता के मध्य की एकता और भिन्नता को स्थापित करना चाहते थे। पुत्र तो पिता से भिन्न है लेकिन वह पिता के तुल्य भी है, और पिता के समानता मे भी है। पुत्र का शाश्वतीय उद्गम हमे यह समझने के लिए सहायता करता है कि पुत्र के उद्गम होने का अर्थ क्या है। अगर वह अनन्त है और आदि से है (यूहन्न 1:1-2) तो फिर वह पिता से उद्गम कैसे हो सकता है?
हम त्रिएकता के
संदर्भ मे पुत्र के उद्गम होने की बात करते हैं। इसके द्वारा हम यह समझाना चाहते
हैं कि पुत्र का वही सारतत्व (essence) है जो पिता का
है। सरल भाषा में, सारतत्व वह है जो किसी को मौलिकता देता हैं, जो अनिवार्यता से उसके पास होता ही है, और
जिसके आधार पर वह अपनी पहचान, अपने अस्तित्व को बनाए
रखता है। अर्थात, पुत्र का उद्गम होना, उसका आना, उसका उत्पन्न होना पिता के सारतत्व
से हुआ है और यह शाश्वतीय/अनन्तकालीन कार्य है।
पिता और पुत्र के मध्य शाश्वतीय/अनन्तकालीन सम्बंध -
जब हम पुत्र का
पिता से उद्गम होने की बात करते हैं तो हम इसे एक मानवीय दृष्टिकोण से देखने के
लिए प्रलोभित होते हैं; यह एक बड़ी समस्या है। जिस प्रकार हम प्राणियों में किसी पुत्र को पिता का
संतान समझा जाता है, हम यीशु ख्रीष्ट को उसी दृष्टिकोण
और समझ से परमेश्वर पिता की संतान के रूप मे देखने और
समझने का व्यर्थपूर्ण प्रयास करने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि, पुत्र का पिता से उद्गम होना एक मानवीय संदर्भ मे नहीं हुआ है क्योंकि यह तो
एक शाश्वतीय/अनन्तकालीन उद्गम है।
इसलिए, जब हम पुत्र के
शाश्वतीय/अनन्तकालीन उद्गम की बात करते हैं, तो इसका
तात्पर्य पुत्र का देहधारी होना नहीं है, हमारे पापों
से हमे बचाने के लिए पुत्र का संसार मे आने के बारे मे नहीं है। शाश्वतीय/अनन्तकालीन
उद्गम केवल पिता और पुत्र के सम्बन्ध को दर्शाता है, इसका
एक ही उद्देश्य है और वो केवल पिता और पुत्र के सम्बन्ध को दिखाना है। यह सम्बन्ध
शाश्वतीय/अनन्तकालीन है, समय से परे है, सृष्टि से पहले का है, आदि से है। इसी विचार को
नीकिया महासभा मे गठित विश्वास वचन मे देखा जाता है जहाँ यीशु ख्रीष्ट के विषय में
इस प्रकार कहा गया है -
Lord Jesus Christ,
the only begotten Son of God, begotten from the Father before all ages, Light
of Light, True God from True God, begotten, not made, of one substance with the
Father, through whom all things are made।
प्रभु यीशु ख्रीष्ट
परमेश्वर का एकलौता पुत्र है, आदि से परमेश्वर से उद्रम हुआ है, प्रकाश का प्रकाश, परमेश्वर से परमेश्वर, उद्रम हुआ है, रचा नहीं गया, पिता के साथ सारतत्व मे एक है, जिसके द्वारा सब
कुछ रचा गया है।
इसलिए, यीशु ख्रीष्ट के पुत्रत्व में
पिता के साथ उसके इस सम्बन्ध का आधार केवल शाश्वतीय/अनन्तकालीन है और इसी सन्दर्भ
में ही है। इसका सृष्टि, समय, उद्धार का कार्य, उद्धार की योजना, यीशु का
देहधारी होकर संसार मे आना, संसार और मनुष्य के
अस्थितत्व इत्यादि से कोई सम्बन्ध और लेन-देन नहीं है। अगर संसार न भी होता, कोई भी रचना नहीं हुई होती, तो भी यीशु ख्रीष्ट,
पिता का पुत्र होता, क्योंकि यीशु ख्रीष्ट का पुत्र होना उसके
शाश्वतीय उद्गम पर आधारित है। ऐसा कोई समय नहीं था जब पुत्र का अस्थितव नहीं था।
चौथी शताब्दी मे रहने वाले ग्रेगोरी नामक कलीसिया के अगुवे ने कहा “यीशु ख्रीष्ट, परमेश्वर से उद्रम तो हुआ, परन्तु उसके अस्तित्व का आरंभ कभी नहीं हुआ”। अर्थात, पुत्र का अस्तित्व शाश्वतीय और अनन्तकालीन है; वो सदाकाल से था।
कई ईश्वरविज्ञानी
इस विषय को ठोस
ईश्वरविज्ञान (Archetypal Theology) के
श्रेणी मे रखते हैं, क्योंकि यह त्रिएकता मे पिता और पुत्र
के उस सम्बन्ध के विषय में है जो परमेश्वरत्व का भाग तो है, परन्तु यह त्रिएकता के बाहर पाया और जाना नहीं जा सकता है। परमेश्वर ने
इसे केवल अपने परमेश्वरत्व के भीतर सीमित करके रखा है और ऐसा करना उसका उचित अधिकार
भी है।
यही कारण है कि
यीशु ख्रीष्ट का पुत्र होना उसे परमेश्वर से कम नहीं बना देता, परमेश्वर से नीचा नहीं ठहरा
देता जैसा कि मनुष्यों मे होता है। पुत्र होते हुए भी वह परमेश्वर की समानता में
है, परमेश्वर की महिमा का प्रकाश है और उसके तत्व का
प्रतिरूप है क्योंकि पुत्र और पिता सारतत्व में एक हैं। अपने ईश्वरत्व मे पुत्र
इसलिए पिता के साथ समान है क्योंकि जो सारतत्व पिता का है, वही पुत्र का भी है और यह सारतत्व पुत्र में इसलिए पाया जाता है क्योंकि
उसका उद्गम पिता से है और यह उद्गम शाश्वतीय है। यही कारण भी है कि नीकिया महासभा
मे गठित विश्वास वचन में लिखा है कि पुत्र रचा नहीं गया परन्तु वह आदि से परमेश्वर
से उद्रम हुआ है। क्योंकि वह आदि से है और उसमें पिता का सारतत्व है, तो पुत्र भी शाश्वत है। अगर वह शाश्वत है तो वह हम मनुष्यों के जैसा एक
प्राणी नहीं है। और अगर वह हमारे जैसा प्राणी नहीं है तो उसका उत्पन्न होना समयकाल
मे सीमित नहीं हो सकता है। इसलिए, उसका उत्पन्न होना तो
शाश्वतीय ही है।
पिता और पुत्र की
भिन्नता -
पिता और पुत्र के
दो व्यक्तियों (persons) मे भिन्नता केवल पुत्रत्व के
आधार पर है जिसके कारण हम त्रिएकता मे भिन्न व्यक्तियों को देखते हैं भले ही उनका
सारतत्व एक है। अगर ऐसा न हो तो हम एक और विधर्म का हिस्सा बन जाएंगे जिसे “Sabellianism” कहा जाता है। इसे Sabellius / सबेलियस
नामक ईश्वरविज्ञानी ने 215 A.D मे रोम मे रहते हुए
आरम्भ किया था। उनका कहना था कि, "पिता, पुत्र, पवित्र आत्मा तीन अलग अलग व्यक्ति नहीं
हैं"। वे लोग तीन अलग अलग रूप / modes मे
कार्य करते हैं। उनका यह भी कहना था कि पिता, पुत्र, पवित्र आत्मा मे कोई भिन्नता नहीं है। एक ही परमेश्वर है जो कभी पिता बन
जाता है, कभी पुत्र और कभी पवित्र आत्मा; वो अलग अलग रूप ले लेता है। यह विधर्म त्रिएकता के तीन व्यक्तियों मे उस
भिन्नता को नकारता है जो शाश्वत, अनंत और अनादि है। रोम
निवासी Hippolytus, Tertullian और आलेक्सनडेरिया
निवासी Dionysius ने उनका विरोध किया था और इस
विधर्म का खंडन किया था। 220 A.D मे Sabellius
/ सबेलियस को विधर्मी घोषित कर दिया गया और उसे कलीसिया से निकाल
दिया गया। उस समय के विद्वानों ने इसका खंडन किया और अगले 100 वर्षों मे यह विधर्म लोप हो गया लेकिन 20 शताब्दी
मे फिर से यह आरंभ हुआ जिसे आज Modalism / रूपवाद
कहा जाता है।
निष्कर्ष -
पिता उत्पन्न नहीं
हुआ इसलिए उसने अपने सारतत्व को कहीं से पाया या किसी से लिया नहीं है। किसी ने
पिता को सारतत्व प्रदान नहीं किया और संचारित नहीं किया। तो इसलिए पिता का सारतत्व
शाश्वतीय है और क्योंकि पिता ने पुत्र को इस शाश्वतीय सारतत्व संचारित किया है, तो पुत्र भी शाश्वत है। जब
पुत्र पिता से उत्पन्न हुआ, उसका उद्रम हुआ, तो वह उस
सारतत्व मे पाया गया जो पिता का भी है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि पिता के
सारतत्व मे विभाजन हो गया, वह सारतत्व बट गया (division), न ही उस सारतत्व का गुणा हुआ (multiply) और न
ही वह सारतत्व घट गया। पिता ने जब पुत्र को उत्पन्न किया तो उसने पुत्र को अपना
सारतत्व संचारित किया जो उसमे है। अब पुत्र का सारतत्व एक बटा हुआ, अधूरा सारतत्व नहीं है परन्तु वह सारतत्व है जो पिता की समानता में है।
इसलिए नीकिया महासभा मे गठित विश्वास वचन मे पुत्र के विषय मे कहा गया कि वो “प्रकाश का प्रकाश, परमेश्वर से परमेश्वर” है।
तो हम देख सकते हैं कि, कैसे और क्यूँ यीशु ख्रीष्ट अपने पुत्रत्व मे किसी मानवीय पुत्र से भिन्न है। इस लेख के आरंभ मे हमने देखा था कि इस संसार मे पुत्र और पिता का सम्बंध कैसा होता है; उन्मे अधिकार, सामर्थ, समानता को लेकर एकता नहीं है। लेकिन इसके विपरीत, पुत्र (यीशु ख्रीष्ट) और पिता के मध्य समानता है। यह यीशु ख्रीष्ट के पुत्रत्व को भिन्न, अनोखा, अद्वितीय (unique) बनाता है। न तो ऐसा कोई और पुत्र था, न है और न होगा। इसलिए यीशु ख्रीष्ट को एकलौता पुत्र कहा गया है।
By Monish Mitra
No comments:
Post a Comment
Thank you for reading this article/blog! We welcome and appreciate your opinion in the comments!