पुराने नियम में इतने युद्ध क्यों हैं?

पुराने नियम में यहोवा परमेश्वर द्वारा अनुमति दी गई बहुत सारे युद्ध और हिंसा को देखते हैं। क्या यह वही प्रेम करने वाला परमेश्वर है जैसाकि उसे नये नियम में दिखाया (या चित्रित किया) गया है?

कुछ वचन ऐसे हैं जो हमें परमेश्वर के प्रेम करनेवाले चरित्र से एकदम विपरीत (घृणास्पद/प्रतिकूल) प्रतीत होते हैं। चलिए कुछ ऐसे वचनों को देखते हैं और विषय को गंभीरतापूर्वक से अध्यन करें। 

उदाहरण के लिए, व्यवस्थाविवरण 20 अध्याय में, यहोवा परमेश्वर द्वारा युद्ध के विषय में दिए गए आदेश व निर्देश शामिल हैं। इस अध्याय में दिया है कि यदि कोई नगर इस्राएल के शांति के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करता और द्वार नही खोलते तो "जब तेरा परमेश्वर यहोवा उसे तेरे हाथ में सौंप दे तब उस में के सब पुरूषों को तलवार से मार डालना" (व्यवस्थाविवरण 20:13)। अन्य नगरों के संबंध में भी ऐसी आज्ञाएं पाई जाती है कि, "किसी प्राणी को जीवित न रख छोड़ना" (व्यवस्थाविवरण 20:16)।

शायद आपको यह भी याद आए कि किस प्रकार से यरीहो की दीवार को ढा दिया गया था और तब इस्राएलियों ने, "क्या पुरूष, क्या स्त्री, क्या जवान, क्या बूढ़े, वरन बैल, भेड़-बकरी, गदहे, और जितने नगर में थे, उन सभों को उन्होंने अर्पण की वस्तु जानकर तलवार से मार डाला" (यहोशू 6:21)। यह वचन हमें बिना संदेह के और साफ तौर से एक निर्दयता और बदले की भावना वाला लगता है। है ना? या फिर आप यहोशू 11:20 पर गौर कीजिए, "क्योंकि यहोवा की जो मनसा थी, कि अपनी उस आज्ञा के अनुसार जो उसने मूसा को दी थी उन पर कुछ भी दया न करे; वरन सत्यानाश कर डाले, इस कारण उसने उनके मन ऐसे कठोर कर दिए, कि उन्होंने इस्राएलियों का सामना करके उन से युद्ध किया।" आज जब हम अपने इक्कीसवीं सदी वाले दृष्टिकोण/नज़रिये से सोचते हैं तो यह प्रश्न पूछते हैं कि, "इन सारे विनाशों के ज़रिए कौनसी भलाई प्राप्त हुई?"

इसके बावजूद, हम देख सकते हैं कि इसका दूसरा पहलू भी है जो यहोवा परमेश्वर को अनुग्रह करनेवाले परमेश्वर के रूप में दर्शाता है। हालांकि हम पाते हैं कि भविष्यवक्ता यहेजकेल ने सब के सामने दुष्ट व्यक्तियों की निंदा/पर्दाफ़ाश किया है और अपनी इन निंदाओं में उन्होंने किसी भी दुष्ट को नहीं छोड़ा है। लेकिन इसके साथ ही वे यहोवा परमेश्वर के अनुग्रह वाले वचनों को भी दर्ज़ करते हैं। जैसाकि ये वचन हैं: 

"परन्तु यदि दुष्ट जन अपने सब पापों से फिर कर, मेरी सब विधियों का पालन करे और न्याय और धर्म के काम करे, तो वह न मरेगा; वरन जीवित ही रहेगा।" "प्रभु यहोवा की यह वाणी है, क्या मैं दुष्ट के मरने से कुछ भी प्रसन्न होता हूँ? क्या मैं इस से प्रसन्न नहीं होता कि वह अपने मार्ग से फिरकर जीवित रहे?" (यहेजकेल 18:21,23)। और वे इसके साथ आगे बढ़ते हुए वचन 32 में कहते हैं, "क्योंकि, प्रभु यहोवा की यह वाणी है, जो मरे, उसके मरने से मैं प्रसन्न नहीं होता, इसलिये पश्चात्ताप करो, तभी तुम जीवित रहोगे! (यहेजकेल 18:32)"। इसके अतिरिक्त 2 इतिहास 16:9 एक ऐसा वचन है, जो हमें परमेश्वर के अनुग्रहकारी चरित्र के प्रति झकझोर(विवश/बाध्य) करके रख देता है, "यहोवा की दृष्टि सारी पृथ्वी पर इसलिये फिरती रहती है कि जिनका मन उसकी ओर निष्कपट रहता है, उनकी सहायता में वह अपना सामर्थ दिखाए।"

परमेश्वर के विषय में ये सभी बातें यह दर्शाती हैं कि वह बुराई पर कठोर दण्ड देने में अटल है। जबकि वह किसी को दंड देने से कभी-भी प्रसन्न नहीं होता है। ये सब बातें उसे उन सब लोगों के प्रति प्रेम और प्रोत्साहन में अटल रहनेवाले के रूप में भी दर्शाती हैं जिनके हृदय उसकी ओर फिर जाते हैं। परमेश्वर की स्पष्ट मनसा/इच्छा यह है कि पापी पश्चाताप करें और जीवन को पाएँ। लेकिन एक ऐसा समय-बिंदु आता है जहां पर आखिरकार पाप और बुराई असहनीय हो जाती है; जिसके कारण उसे एकदम पूरी तरह से ही नष्ट कर दिया जाता है।

हमें इन भयानक और कठोर दण्डों को इनके ऐतिहासिक संदर्भ या परिस्थिति में रखकर देखना चाहिए। उन समयों में बुराई का फैलाव इतना अधिक व्यापक था कि अनैतिकता, लोगों के चरित्रों में गिरावट और असभ्यता ने जीवन के हर एक पहलू में आक्रमणकारी रूप से अपने अधिकार को स्थापित कर दिया था। यहां तक कि बच्चों को मूर्तियों/बुतपरस्त देवताओं के लिए बलिदान किए जाते थे। पुरुष और स्त्रियों की वेश्यावृत्ति, धार्मिक रीति-रिवाजों के एक भाग के रूप में, एकदम मंदिर के अंदर ही होने लगी थी। मूर्ति पूजा प्रचलित थी और सामाजिक जीवन पूरी तरह से अशुद्धताओं से भरा हुआ था। बुराई संक्रामक रूप में (संपर्क से फैलने वाली बिमारी के समान) थी और परमेश्वर के लोग भी इससे संक्रमित होने के ख़तरे में थे। आखिर में परमेश्वर के द्वारा भयानक न्याय को प्रकट किया गया।

आज हम अच्छाई और बुराई के बीच के अंतर को, काले और सफेद रंग में अंतर के समान नहीं देख रहे हैं। मानो इस अंतर को हमने खो दिया है। सहनशीलता को एक महान धार्मिक गुण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। और वास्तव में विभिन्नताओं के प्रति सहनशीलता एक महान मसीही गुण भी है। लेकिन आज अक्सर सहनशीलता का अर्थ दुनिया में लगभग हर प्रकार के व्यवहार को स्वीकार करने के गुण के रूप में लिया जाता है। सहनशीलता के नाम पर आज कुछ भी किया जा रहा है! नैतिक सापेक्षवाद, इसी प्रकार की सहनशीलता का ही परिणाम है जो एक अंधाधुंध रूप से फैला हुआ है (नैतिक सापेक्षवाद ऐसी अवधारणा है जिसमें माना जाता है कि एक स्थान/समुदाय/वातावरण में अपनाए जाने वाले नैतिक मूल्य दूसरे स्थान/समुदाय/वातावरण के लिए अनैतिक हो सकते हैं)। इसके कारण बच्चों का मार्गदर्शन भी पूर्ण रूप से स्वतंत्र नैतिक मूल्यों की बजाय, कम और बहुत ही कम स्वतंत्र नैतिक मूल्यों के साथ हो रहा है। साधारण शब्दों में कहा जाए तो, जिन नैतिक मूल्यों के साथ उनकी परवरिश/मार्गदर्शन किया जा रहा है वे स्थान/समुदाय/वातावरण के साथ ही बदलते रहते हैं और हर एक स्थान पर एक जैसे नहीं रहते हैं। हम अब शायद ही कभी 'पाप' नाम के शब्द को सुनते हैं। परंतु इसके विपरीत कहीं अधिक कोमल या हल्के शब्दों को इस्तेमाल में लाया जाता है। निश्चित रूप से परमेश्वर अपने पवित्रता के चरित्र के कारण इस घृणित बात को कभी भी सहन नहीं करेंगे।

ना ही हम इस सच्चाई को स्वीकार करना पसंद करते हैं कि जब बुराई फैलती है तो निर्दोष और दोषी, दोनों को ही नुकसान उठाना पड़ता है। जब हिरोशिमा पर बम फैंका गया था तो इस शहर पर आई आपत्ति ने निर्दोष और दोषी दोनों को ही मार डाला था। कुछ दिनों के बीत जाने पर एक सीधे-सीधे परिणाम के रूप में, युद्ध अपनी समाप्ति पर आ गया। यह एक भयानक अंत था, लेकिन आखिरकार यह अंत था और इससे भी ज्यादा हो सकने वाले हत्याकांड को टाल दिया गया। आइए, बाइबल में न्याय के इस बहुत ही सख्त और सामूहिक दृष्टिकोण के बारे में स्पष्ट बनें। कनान देश के बुतपरस्त (अनेक देवी-देवताओं को मानने वाले या मूर्तिपूजक) सांप्रदाय अवश्य ही इस्राएलियों के साथ शादी-ब्याह करते थे और इसके कारण परमेश्वर के लोग उनकी व्यभिचार जैसी बुराईयों/विकृतियों और बुरी धार्मिक रीति-रिवाजों को अपनाने के खतरे में थे। आखिर में यह खतरा बहुत ही बड़ा बन गया।

संपूर्ण बाइबल शुरूआत से लेकर अंत तक, न्याय के साथ-साथ अनुग्रह के अपने इस अटल मानदण्ड से, कभी भी नहीं बदलती। यीशु बुराई करने वालों के दण्ड के विषय में एकदम स्पष्ट हैं,  क्योंकि न्याय के दिन परमेश्वर बुराई करने वालों से कहेंगे, "हे स्रापित लोगों, मेरे सामने से उस अनन्त आग में चले जाओ, जो शैतान और उसके दूतों के लिये तैयार की गई है" (मत्ती 25:41)। हमारा समाज दुख और दण्ड के बारे में सुनने की अधिक परवाह नहीं करता है। और यह एक ऐसे यीशु को पसंद करता है जो एकदम विनम्र और शांत है जैसाकि आज के कुछ आधुनिक लेखकों के द्वारा उसे (यीशु को) प्रस्तुत किया जाता है। लेकिन नये नियम का परमेश्वर युगों-युगों से कभी न बदलने वाला परमेश्वर है और इस दृढ़ वचन में ही हमारी एकमात्र आशा बनी रहती है। 

यह बात एकदम साफ और स्पष्ट है कि हम सभी ने उस पूर्ण सिद्धता के चरित्र को (पहले मनुष्य आदम के ज़रिए  आए पापों के कारण) खो दिया है। हममें से हर एक लड़खड़ाता है, चोट खाता है और पाप करता है। यहां तक कि सबसे धर्मी व्यक्ति भी बार-बार इस बात की पुष्टि करते हैं। परमेश्वर के सदाकाल के लिए बने रहने वाले न्याय में, वह पाप पर बहुत ही साधारण तरीके से यों ही पलकें नहीं झपकाता है। लेकिन कहानी का अंत यह नहीं है और ना ही यह बाइबल की प्रमुख विषय-वस्तु है। लेकिन जब भी इंसानियत स्वयं के आनंद/आत्म संतुष्टि में बहुत गहराई से लिपटती जाती है तो परमेश्वर बीच में आते हैं। पुराना नियम तो वास्तव में ही, परमेश्वर द्वारा मानव परिस्थितियों में आशा के एक नये वायदे के साथ बीच में आने का, एक रिकॉर्ड/सुरक्षित विवरण है। नया नियम, पाप और विद्रोह में खोए हुए लोगों पर किए गए अनुग्रह का रिकॉर्ड(सुरक्षित विवरण) है। परमेश्वर को इस बचाव के कार्य का उत्तरदायित्व लेने की कोई विवशता या मजबूरी नहीं थी। लेकिन उसकी (पहले से ही निर्धारित) योजना ऐसी शानदार थी कि उसे शब्दों के द्वारा बयान नहीं किया जा सकता है। वह योजना अब भी शानदार है। परमेश्वर पाप और न्याय के बारे में नहीं भूला। बल्कि इसके विपरीत, यीशु मसीह - मानव देह में परमेश्वर - ने स्वयं पाप के दण्ड को अपने ऊपर लिया और इस प्रकार भयानक सजा का भुगतान किया। परमेश्वर के पाप-क्षमा के इस कार्य को ही मसीही/ईसाई लोग 'अनुग्रह' कहते हैं। बाइबल मुख्य रूप से अनुग्रह का एक रिकॉर्ड(जीवन-इतिहास) है जो कि डर और विपत्ति जैसे हालातों के विरुद्ध में निर्धारित किया गया है।

यह एक चिरस्थायी और अनंतकाल की कहानी है। हमें चारों ओर से घेरने वाली बुराई लगातार बढ़ती हुई प्रतीत होती है। लोगों में नैतिक मूल्यों के प्रति बेपरवाह (एकदम प्रभावहीन) होने की प्रवृति धीरे-धीरे हर जगह प्रवेश कर रही है। लेकिन इसके बीच अभी भी परमेश्वर के अनुग्रह की रोशनी चमकती है। उसका प्रेम बना रहता है। वह पुकारता है और बिल्कुल अंतिम क्षण तक भी पुकारता है। क्या आपने उसके अनुग्रह को पा लिया है? प्रतिदिन के जीवन में जीने के लिए यह अभी भी मौजूद है!

Translation: Shivani Kandera
Original Article: Click here

16 comments:

  1. Thanks Glory apologetic team and brother fransis for sharing more important bible teaching

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  2. Thanks ga. May god bless u ga .members

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  3. God blessed all GA members

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  4. Thanks for translation and Bringing it in Hindi

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  5. Thank you🙏 , praise the Lord

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  6. Thanks you Francis bhai achche bachan ke liye prabhu aapko bahut saari ashish de amen

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  7. Thank u Francis bhai. Prabhu aap ko aur aap k pure team ko bahutayat se ashish de.

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  8. Thanks ,God bless you and team,really our God is good God yesterday ,today and forever 🙏

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