विश्वास से भटकने के चार कारण


परिचय

स्थानीय कलीसिया में एक रखवाले / उपदेशक / प्राचीन की भूमिका में सुसमाचार का प्रचार करना और पवित्र शास्त्र से शिक्ष्या देना एक बड़ी ज़िम्मेदारी होती है। इस सेवकाई के फलस्वरूप जब हम यह गवाही सुनते हैं की किस प्रकार सुसमाचार के प्रचार के द्वारा लोगों ने अनंत जीवन को पाया तो यह एक बहुत आनंद का विषय होता है। पर एक सच्चाई यह भी है की कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो विश्वास से पीछे हट जाते हैं जब उनके जीवन में दुःख, तकलीफ और परीक्षा आती हैं। वह मसीह संगति त्याग देते हैं और अपने पुराने जीवन में लौट जाते हैं। मत्ती 16:13-15 में हम यह पाते हैं की केसरिया फिलिप्पी के देश में लोग यीशु के बारे में अलग-अलग विचार रखते थे। कितने तो यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला कहते थे और कितने एलिय्याह, और कितने यिर्मयाह या भविष्यवक्ताओं में से कोई एक कहते थे। पर यीशु ने अपने चेलों से कहा; "परन्तु तुम मुझे क्या कहते हो?"

यीशु कौन है? - जब तक हम इसकी सही समझ के आधार पर अपने विश्वास का अंगीकार नहीं करते, हम विश्वास से भटक जाएंगे। सामान्य तौर पे, लोगों का यीशु के बारे में चार भ्रम / गलतफ़हमी होता है भले ही वह अपने आप को विश्वासी कहते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि वे अपने जीवन में क्लेश, परीक्षा और कठिन समय में विश्वास से भटक जाते हैं। इस लेख के माध्यम से हम उन चार बातों पर विचार करेंगे।

1. यीशु, परमेश्वर तक पहुँचने के अनेक रास्तों में से एक है या स्वर्ग तक पहुँचने के अनेक तरीकों में से एक है।
इस संसार में बहुत सारे लोग धार्मिक बहुलवाद / अनेकवाद विचारधारा रखते हैं। आस्था वादी होने के कारण वह स्वर्ग भी जाना चाहते हैं। धार्मिक बहुलवाद / अनेकवाद विचारधारा रखने वाले यह आस्था वादी लोग ईसाई धर्म को सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। अनेक धर्मगुरुओं में से वह यीशु को सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। शायद वह यीशु की नम्रता या सादगी या निष्कपटता से बहुत प्रभावित हुए हैं। इसलिए वे यीशु का अनुसरण करना चाहते हैं और उसपर विश्वास करते हैं। उन्होंने कभी भी यीशु के उन विशिष्ट दावों पर भरोसा नहीं किया जिसका उल्लेख यीशु ने यूहन्ना 6:48, 8:12, 10:9,11, 11:25, 14:6, 15:1 में किया था। वे प्रेरितों की शिक्षाओं पर भरोसा नहीं करते हैं जिन्होंने लिखा है कि स्वर्ग के नीचे कोई दूसरा नाम नहीं है जिसके द्वारा मनुष्य उद्धार पा सकता है (प्रेरितों के काम 4:12), परमेश्वर और मनुष्य के बीच केवल एक बिचवई है (1 तीमुथियुस 2:5)। इन बातों को गंभीरता से न लेने के कारण ऐसे लोग जीवन में क्लेश, परीक्षा और कठिन समय में विश्वास से भटक जाते हैं। जब तक किसी व्यक्ति का यीशु के प्रति समझ, उस पर विश्वास और अंगीकार यीशु के विशिष्ट दावों पर आधारित नहीं है, तब तक उनका विश्वास और अंगीकार केवल सतही है और वह अंततः विश्वास से भटक जाएंगे।

2. यीशु के पीछे चलने से हमें पृथ्वी पर एक आरामदायक और अच्छा जीवन मिलेगा।
बहुत से ऐसे लोग हैं जो पृथ्वी पर एक आरामदायक जीवन की तलाश में हैं। वे किसी ऐसे अगुवा की तलाश में हैं जो उन्हें इस धरती पर एक आरामदायक जीवन दे सके। हो सकता है कि इस वजह से वे उन चंगाई, चिन्हों और चमत्कारों से आकर्षित भो गए जो यीशु ने पृथ्वी पर रहते हुए लोगों के मध्य किया था। इसके आधार पर वे मानते हैं कि यदि वे यीशु को अपने जीवन में स्वीकार करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं तो यीशु भी उनके जीवन में ऐसे चंगाई, चिन्ह और चमत्कार करेंगे और उन्हें भौतिक आशीष प्रदान करेंगे जिनकी उन्हें आवश्यकता है। वे जीवन के बारे में चिंतित हैं और चाहते हैं कि यीशु उन्हें चिंताओं से मुक्त जीवन देंगे जहाँ आराम और शांति होगी। वे यह देखने में विफल जो जाते हैं कि यीशु ने हमें चिंता करने के बजाय अपने जीवन की आवश्यकताओं के लिए नियमित रूप से उस पर भरोसा और निर्भर रहने के लिया कहा है (मत्ती 6:11, 25-34)। ऐसा न करने के कारण वह जीवन के क्लेश, परीक्षा और कठिन समय में विश्वास से भटक जाते हैं। यीशु के जीवन को देखें तो हम पाते हैं की यीशु ने विलासमय जीवन नहीं जिया परन्तु वह स्वर्ग से उतरकर आया और परमेश्वर पिता की योजना को पूरा करने के लिए संपूर्ण आज्ञाकारिता और पिता परमेश्वर की निर्भरता में रहा (फिलिप्पियों 2:7-8)। यदि कोई व्यक्ति केवल चिंता मुक्त जीवन का आनंद लेने के लिए यीशु पर अपना भरोसा रखना चाहता है पर वह यीशु पर दैनिक रूप से निर्भर होकर जीना नहीं चाहता है, वह अंततः विश्वास से भटक जाएंगे।

3. यीशु जो भला और प्रेमी है, मेरे जीवन में पीड़ा या बुराई को होने नहीं देगा।
कुछ ऐसे लोगों का समूह भी है जो इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर सकते कि मसीह जीवन में दुख भी शामिल होता है। हो सकता है कि वे सोचते हों कि चूंकि यीशु ने हमारे लिए क्रूस पर दुख उठाया है, इसलिए हमें इस जीवन में न तो दुखों को सहना है और न ही दुखों का सामना करना है। वे दुखों से भयभीत हो जाते हैं और मसीह के लिए कष्ट सहने से हिचकिचाते हैं। वे मानते हैं कि बाइबिल में दिए गए कुछ वचनों का दावा और घोषणा करना उन्हें दुखों और बुराई से प्रतिरक्षा करता है। वे यीशु द्वारा निर्धारित शिष्यता की माँगो को अनदेखा करते हैं जहाँ यीशु स्पष्ट करता है कि जब हम प्रतिदिन क्रूस उठाकर चलेंगे और उसका अनुसरण करेंगे, तो लोग हमें घृणा करेंगे, उसके लिए हम सताए जाएंगे (लूका 14:27, मत्ती 5:11, यूहन्ना 17:18,20)। वे प्रेरितों के उन शिक्षाओं को भी नज़रअंदाज़ करते हैं जहाँ प्रेरितों ने यह स्पष्ट कर दिया कि दुख और कष्ट हमारे विश्वास का एक हिस्सा है जिसे हमें सहना है और इन कष्टों और दुखों के पीछे परमेश्वर का एक उद्देश्य है जैसा कि 1 पतरस 1:6-7, 4:1, 5:10, 2 तीमुथियुस 3:12, याकूब 1: 2-4, 12, रोमियों 5:3-5, 2 कुरिन्थियों 1:3-4 में लिखा गया है। यदि कोई व्यक्ति यीशु के लिए कष्ट सहना नहीं चाहता है, एक स्वार्थी रवैया रखता है और दुःख-पीड़ा रहित मसीह जीवन जीना चाहता है वह अंततः विश्वास से भटक जाएगा।

4. यीशु हमें अपनी इच्छानुसार जीवन जीने की स्वतंत्रता देता है क्योंकि अब हम व्यवस्था के अधीन नहीं हैं परन्तु अनुग्रह के अधीन हैं।
कुछ ऐसे भी लोग हैं जो मसीह का अनुसरण करना चाहते तो हैं, लेकिन वे जवाबदेह नहीं ठहराया जाना चाहते हैं। वे नहीं चाहते हैं की उन्हें कोई सुधारे, अनुशासित करें और न ही कोई उन्हें कुछ सिखाए। वे इस धारणा रखते हैं कि उन्हें मसीह ने स्वतंत्र ठहरा दिया है। इसलिए उनसे बिना कोई पूछताछ और जवाबदेही के अपनी स्वतंत्रता का आनंद लेने की अनुमति दी जानी चाहिए क्योंकि वे अनुग्रह के अधीन हैं। हाँ, यह सच है कि हम मसीह के द्वारा स्वतंत्र किए गए हैं, परन्तु यह लोग इस तथ्य को पसंद नहीं करते कि अब हम मसीह में धार्मिकता के दास बन गए हैं (रोमियों 6:18)। वे इस सच्चाई को पसंद नहीं करते हैं कि अनुग्रह के अधीन होने का मतलब यह नहीं है कि अब हम एक अनियंत्रित जीवन, जवाबदेह रहित जीवन जी सकते हैं और जो चाहे वह कर सकते हैं। हम अनुग्रह के अधीन हैं और हम मसीह की देह (स्थानीय कलीसिया) का भी भाग हैं जहाँ हम संगी विश्वासियों के साथ जुड़ते हैं और आत्मा के द्वारा परमेश्वर का निवास स्थान होने के लिये एक साथ बनाए जाते हैं (इफिसियों 2:19-22)। पवित्र शास्त्र के द्वारा उपदेश पाना, समझ प्राप्त करना, सुधार प्राप्त करना, और धर्म की शिक्षा पाना हमारा लक्ष्य होना चाहिए (2 तीमुथियुस 3:16-7)। वास्तव में अनुग्रह के अधीन होना हमें मसीह में हमारे चाल चलन के प्रति अधिक जिम्मेदार बनाता है। हमें अपने जीवन में पवित्रीकरण और पवित्रता का अनुसरण करना चाहिए (रोमियों 12:1, 1 कुरिन्थियों 6:19, 2 कुरिन्थियों 7:1, इफिसियों 5:3, 27, 1 थिस्सलुनीकियों 4:7, 1 पतरस 1:15-16)। यह तब नहीं हो सकता जब तक हम अनुग्रह के बहाने एक मनमर्जी का जीवन जीने की स्वतंत्रता चाहते हैं। यदि कोई व्यक्ति पूर्ण स्वतंत्रता चाहता है, उसके पास सीखने की प्रवृत्ति नहीं है, उसे अधीनता, जवाबदेही पसंद नहीं है पर वह मसीह का अनुसरण करना चाहता है, वह अंततः विश्वास से भटक जाएगा।

निष्कर्ष
भाइयों और बहनों, हमें यह याद रखना होगा कि एक व्यक्ति के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण और जरूरी है कि वह मसीह के बारे में क्या सोचता है, समझता है और स्वीकारता है। यदि उसका अंगीकार मसीह के बारे में एक ऐसी सतही समझ पर आधारित है जो उसके अनुकूल है, उन्हें लाभ और फ़ायदा पहुँचाता है, उनके लिए सहज और आसान जान पड़ता है, वह अंततः विश्वास से भटक जाएंगे। जब भी हम सुसमाचार को बताते हैं, आइए इसे बहुत स्पष्ट करें और लोगों को समझाएं कि यीशु कौन हैं, उसके विशिष्ट और अनोखे दावे क्या हैं और शिष्यता के जीवन में हमसे यीशु का क्या मांग है। यह सच है कि क्रूस का संदेश लोगों को असहज करेगा, लोग इस सुसमाचार को पसंद और प्रेम नहीं करेंगे। यह बहुतों के लिए ठोकर का कारण होगा, जिसे बहुतों ने ठुकरा दिया है, लेकिन सच्चाई तो यह है की हर एक विश्वास करने वाले के लिये यह उद्धार के निमित परमेश्वर की सामर्थ है।

Ps Monish Mitra

7 comments:

  1. You are right Brother
    God bless you

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  2. Right bro Thank you GA Team ❤God bless you all

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  3. Brother aise hi article agar Assamese language mein upalabdh kara dete to main apne friends ke sath share kar sakta tha... Bcz main Assam se belong karta hoon

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  4. Thank you So Monish article ke liye .God bless you.

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