धन्य मनुष्य परीक्षा के मध्य स्थिर रहता है - याकूब 1:12- 16


धन्य मनुष्य परीक्षा के मध्य स्थिर रहता है - याकूब 1:12- 16


परिचय 


  • यह पत्री उन बारहों गोत्रों को लिखा लिखा गया था जो तित्तर बित्तर होकर रह रहे थे 

  • यह लोग अपने विश्वास के कारण विभिन्न परीक्षाओं का सामना कर रहे थे 

  • विभिन्न परीक्षाओं के कारण वह अस्थिर हो रहे थे 

  • विभिन्न परीक्षाओं का सामना वह परिपक्वता के साथ नहीं कर रहे थे 

  • याकूब उन्हें स्थिर होने के लिए प्रोत्साहन कर रहे हैं 


2 - 8 पद में याकूब विभिन्न परीक्षाओं के प्रति एक विश्वासी के स्वभाव के बारे में स्मरण दिलाते हैं। 

  • परीक्षा को आनंद की बात समझना 

  • परीक्षा के द्वारा हमारा विश्वास परखा जाता है 

  • परीक्षा के द्वारा धीरज का कार्य हमारे जीवन में पूरा होता है 

  • परीक्षा का सामना करने के लिए हमें परमेश्वर से बुद्धि मांगनी चाहिए

   

इन बातों को स्मरण दिलाने के बाद, याकूब यह समझाना चाहता है परीक्षा के मध्य स्थिर रहना क्यों आवश्यक है। सर्वप्रथम याकूब कहता है की एक धन्य मनुष्य की पहचान और परिचय यह है की वह परीक्षा के मध्य स्थिर रहता है। एक मनुष्य इसलिए धन्य नहीं कहलाता क्यूंकि वह भौतिक आशीषों से भरपूर है या फिर उसके जीवन में कुछ चिह्न - चमत्कार - चंगाई इत्यादि हुआ है। वह धन्य इसलिए भी नहीं है क्यूंकि उसके जीवन में कुछ बड़ा और अद्भुत कार्य हुआ है। वह अपने वैभव, बुद्धि, धन, ज्ञान इत्यादि के कारण भी धन्य नहीं है। इन सब के विपरीत वह धन्य इसलिए कहलाता है क्यूंकि वह विभिन्न परिक्ष्याओं के मध्य स्थिर रहता है। 


सच में, परमेश्वर के मूल्यांकन और मनुष्य के मूल्यांकन के मानक / पैमाने बिलकुल विपरीत है। हम में से अधिकांश लोग परमेश्वर के मूल्यांकन के मानक के अनुसार न तो सोचते हैं, न सीखने की इच्छा रखते हैं और न ही सिखाते हैं। हमारी सोच विकृत है, भ्रष्ट है, पापमय है और ईश्वरविरोधी है। परमेश्वर हमें सहायता करे और अनुग्रह दे की हम धन्य कहलाने के सही अर्थ को आज समझ सकें। 


तो परीक्षा के मध्य स्थिर रहने की आवश्यकता क्यों है?


विश्वासी परीक्षा के मध्य स्थिर रहेगा क्यूंकि यह परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम का प्रमाण है  (12)


परीक्षा के मध्य स्थिरता के कारण, हम खरे बनते हैं। यह मानक परमेश्वर ने ठहराया है। इससे कोई फरक नहीं पड़ता है की हम इस बारे में क्या विचार रखते हैं। सर्वज्ञानी परमेश्वर ने यही मानक ठहराया है खरा बनने के लिए। हमारे पास कोई दूसरा विकल्प, उपाय, रास्ता नहीं है।      


परीक्षा के मध्य स्थिरता के कारण, हम मुकुट प्राप्त करते हैं। यहाँ पर यह बात महत्वपुर्ण नहीं है की इस मुकुट का वज़न कितना होगा, यह कैसा दिखेगा, किस रंग का होगा इत्यादि। मुख्य बात यह है की यह परीक्षा में स्थिर रहने का प्रतिफल होगा। यह एक निश्चित प्रतिफल होगा क्यूंकि यह प्रभु की प्रतिज्ञा है। यह झूटी, मनगढंत, भरमानेवाली बात नहीं है। यह सर्वशक्तिमान - संप्रभु - अटल - अनंत - जीवित - पवित्र परमेश्वर की प्रतिज्ञा है। मुकुट की सुंदरता हमारा प्रोत्साहन नहीं है, वरण इस प्रतिज्ञा की अटलता और आश्वशान्ता हमारा प्रोत्साहन है।  


परीक्षा के मध्य स्थिरता, परमेश्वर के प्रति हमारे प्रेम का प्रमाण है। परीक्षा में स्थिर रहना, उसके द्वारा खरा बनना, खरा बनने के कारण मुकुट प्राप्ति की प्रतिज्ञा पाना एक मनुष्य को परमेश्वर से प्रेम रखने वाला ठहराता है। परमेश्वर को इस प्रकार से प्रेम करने वाले के लिए यह प्रतिज्ञा है की उसे मुकुट मिलेगा। परमेश्वर से प्रेम रखने वाला - इसकी परिभाषा बनाने का अधिकार केवल परमेश्वर के पास है। हम अपने मन से, इच्छा से, बुद्धि से इसकी परिभाषा नहीं बना सकते। परमेश्वर ने उससे प्रेम रखने वालों के लिए जो परिभाषा ठहराया है वह यह है की वह मनुष्य परीक्षा में स्थिर रहेगा; वह अपनी खराई का प्रमाण परीक्षा में स्थिर रहने के द्वारा देगा।


विश्वासी परीक्षा के मध्य स्थिर रहेगा क्यूंकि अस्थिरता पाप और मृत्यु को लेकर आता है (13-16)


परीक्षा के उद्देश्य का अस्वीकरण शैतान को अवसर देता है की वह हमें बुरी अभिलाषा से प्रलोभित कर सके। परीक्षा के समय अब्राम का मिस्र देश को चला जाना (उत्पत्ति 12:10), इस्राएलियों का परीक्षा के समय कुड़कुड़ाना (निर्गमन 15:23-24)। परीक्षा का जीवन में आना बुरा नहीं है पर परीक्षा से बाहर निकलने के लिए या उसका सामना करने के लिए गलत रास्ता / उपाय का प्रयोग करना बुरा है और पाप है। परमेश्वर पर भरोसा न करना मूर्खता है। शैतान हमारी इस मूर्खता का लाभ उठाता है और हमें गलत उपाय का प्रयोग करने के लिए प्रलोभित करता है। यह वह बुराई है जिसके विषय में याकूब चेतावनी दे रहा है। यह बुरी अभिलाषा के विषय वस्तु अलग अलग हो सकते हैं पर उसका उद्देश्य यह होता है की हमें परीक्षा में अस्थिर बना दे। यीशु के जीवन में हम देखते हैं की शैतान कैसे यीशु को बुरी बातों / उपाय से प्रलोभित कर रहा था जब यीशु 40 दिन और रात के उपवास के बाद भूखा हो गया था (लूका 4:1-12)।


परीक्षा में बुरी अभिलाषा से प्रलोभित होना हमें धोखा देता है, बहला देता है और पाप में गिराता है। प्रलोभन एक जाल के सामान है जिसे हम देख नहीं सकते हैं। वह सतही स्तर में लाभदायक, अच्छा और सही दीखता है लेकिन अंत में वह बुराई लेकर आता है और हमें मृत्यु तक ले जाता है। वह इस सच्चाई से हमें वंचित करने का प्रयास करता है की परीक्षा हमारे विश्वास को परिपक्व करने के लिए और हमारी भलाई के लिए है। परमेश्वर की उस प्रतिज्ञा से हमें वंचित रखने का प्रयास करता है की वह हमें प्रतिफल में एक मुकुट देगा। 


निष्कर्ष 

  • हमें परीक्षाओं से भागने या बचने का प्रयास नहीं करना चाहिए। 

  • हमें स्मरण रखना है की परीक्षा का उद्देश्य हमारे भले के लिए है। 

  • परीक्षा में स्थिर रहना एक धन्य मनुष्य का परिचय है। 


Article by Ps Monish Mitra

3 comments:

  1. Right 👍
    हमें परीक्षाओ का सामना करना चाहिए
    न कि परीक्षा से भागना

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  2. हो बरोबर आहे परीक्षा आल्याने आपण अध्यात्मिक जीवनात कुठे पर्यंत आलो आहे समजते.

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  3. Yes Brother
    परीक्षाओं का सामना करना बहुत जरूरी है

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