सुसमाचार - प्रतिज्ञा - आश्वासन

उसी के द्वारा तुम्हारा उद्धार भी होता है, यदि उस सुसमाचार को जो मैं ने तुम्हें सुनाया था स्मरण रखते हो; नहीं तो तुम्हारा विश्वास करना व्यर्थ हुआ। 1 कुरिन्थियों 15:2

मनुष्यों के उद्धार के निमित, परमेश्वर की और से दिया गया प्रकाशन "सुसमाचार" है। सुसमाचार वह एकमात्र सन्देश है जिसके द्वारा मनुष्य उद्धार को पा सकता है। इसीलिए सुसमाचार को समझना, थामे रहना और उसके अनुकूल अपने जीवन को जीना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए, उसे समझना चाहिए और उसकी समझ में बढ़ना भी चाहिए। अगर सुसमाचार को लेके हम गलती करते हैं, उसे गलत तरीके से समझते हैं और दूसरों को समझाते हैं, उसका गलत अर्थ निकलते हैं तो फिर हम उद्धार के समझ में एक संपूर्ण गलत दिशा में चले जाते हैं। पवित्र शास्त्र हमें उद्धार के भूत काल, वर्तमान काल और भविष्य काल के बारे में सिखाता है और 1 कुरिन्थियों में यह खंड उद्धार के वर्तमान काल के पहलु को दर्शाता है। 

भूत काल - जब परमेश्वर का अनुग्रह हमारे ह्रदय को परिवर्तन करता है, हमें पाप के दोष और दंड से बचाता है, हमें धर्मी ठहराता है। 

वर्तमान काल - जब हम पवित्रता में आगे बढ़ते रहते हैं, यीशु के चरित्र में बढ़ते रहते हैं, परीक्षा - क्लेश - ताड़ना का अनुभव करते हुए परिपक्वता में बढ़ते रहते हैं।  

भविष्य काल - यह हमारा महिमा करण है, जहाँ हम पाप की उपस्थिति से, प्रभाव से और समर्थ से आज़ाद हो जाते हैं। 

उद्धार के बारे में इन सब बातों को पढ़ने के बाद सवाल यह उठता है की मनुष्य क्यों इस उद्धार के समाचार को / सुसमाचार को गंभीरता से नहीं लेता है ? अगर सुसमाचार उद्धार के निमित परमेश्वर का सामर्थ है, तो फिर मनुष्य इस सामर्थ के प्रति आकर्षित क्यों नहीं होता है ? मनुष्य की इच्छा क्यों सांसारिक बातों में केंद्रित हैं ? और अगर वह सुसमाचार के प्रति आकर्षित होते भी हैं, ग्रहण करना चाहते भी हैं तो फिर क्यों उनकी सोच यह होती है की सुसमाचार उन्हें संसार में क्या लाभ दे सकता है?

सर्वप्रथम कारण यह है की प्रचारक अपने प्रचार में परमेश्वर के न्याय के बारे में गंभीरता से प्रचार नहीं करते, परमेश्वर के न्याय से, क्रोध से, दंड से बचने की आवश्यकता को उजागर नहीं करते हैं। इसीलिए लोगों को इन सच्चाइयों के अपेक्ष्यकृत संसार में जीवन के अभिलाषाओं की पूर्ति होने की आवश्यकता और जरूरत ज्यादा महत्वपूर्ण लगती है। सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति और समस्या का समाधान प्राप्त करना बड़ा लगता है और परमेश्वर के न्याय से, क्रोध से, दंड से बचने की आवश्यकता छोटी लगती है या फिर मनगढ़ंत बातें लगती है।

दूसरा कारण यह है की सामान्य तौर पे लोगों की रुचि अपने जीवन को इस संसार में बेहतर,सफल और सम्पन्न बनाने के लिए रुचि रखते हैं, उसके लिए मेहनत, परिश्रम करना चाहते हैं पर आत्मिक बातों में, यीशु के बलिदान स्वरूप पाप की माफ़ी के बारे में रुचि नहीं रखते हैं। 

भले ही कारण कुछ भी हो, या लोगों की प्रतिक्रिया कुछ भी हो, लोगों की मांग कुछ भी हो, पर एक सच्चे प्रचारक होने के नाते हमें केवल वही बताना है जो सत्य है। और सत्य यह है की सुसमाचार हमें केवल अनंत जीवन की प्रतिज्ञा देता है और इस संसार में क्रूस उठाकर के चलने की आज्ञा देता है। यही सच्चाई है और बहुत सारे लोग इससे असहज महसूस करते हैं। 1 कुरिन्थियों 15:1 में सुसमाचार में स्थिर रहने की बात की जा रही थी। सुसमाचार का कार्य हमारे जीवन में होने का एक सच्चा प्रमाण यह है की परमेश्वर हमें उस सुसमाचार में स्थिर बने रहने में सहायता भी करता है। इसीलिए हमें यह समझना है की भूत काल में हुए उस अनुभव, परमेश्वर का हमारे पापों को माफ़ करना हमारे लिए एक साधारण बात बनकर न रह जाए। यह जरूरी है की अब हम उस सुसमाचार में स्थिर रहें क्योंकि यह हमारे वर्तमान कल के उद्धार में बने रहने का प्रमाण है। हम लापरवाह नहीं हो सकते, हम वापस उसी सांसारिक मानसिकता में गिर नहीं सकते और न ही सांसारिक वस्तुओं को अपनी प्राथमिकता बना सकते हैं। हम उस झूठे आश्वासन में अपने जीवन को जी नहीं सकते जो हमें सांसारिक अभिलाषाओं की तृप्ति का आश्वासन देता है। 

हमारा आश्वासन आत्मिक है, अनंत जीवन का है, जीवित आशा का है। हमारा आश्वासन परमेश्वर के क्रोध, दंड और न्याय से मुक्ति का है जो यीशु के द्वारा संभव हुआ है। और अब हमें इस संसार में यीशु की उस प्रतिज्ञा को आशा के साथ थामते हुए  परीक्षा, समस्या, ताड़ना इत्यादि के मध्य स्थिर रहते हुए आगे बढ़ते जाना है। अब हमें भी अपने क्रूस को उठाकर इस संसार में चलना है। यही सुसमाचार की आज्ञा है और प्रतिज्ञा है।  

-Pastor Monish Mitra

सुसमाचार को ग्रहण करना


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